सुनहरी बाई: चंबल की पहली महिला डकैत या न्याय की देवी

सुनहरी बाई: चंबल की रानी या बीहड़ की आग?

“जिसे दुनिया डकैत कहती थी, बीहड़ों ने उसे देवी समझा।”

चंबल की कहानियों में अगर कोई नाम रहस्यमयी और दर्द भरा है, तो वह है सुनहरी बाई। एक औरत जो चंबल की धूल में पैदा हुई, पली-बढ़ी, और फिर वही धूल उसकी पनाह बन गई। उसके हाथों में चूड़ियाँ नहीं, बंदूक थी — लेकिन वो बंदूक अन्याय के खिलाफ थी।

गाँव की बेटी से बीहड़ की बागी तक

सुनहरी बाई का जन्म उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। गरीबी, भेदभाव और औरत होने की पीड़ा उसने बचपन से देखी। जब 14 साल की उम्र में उसकी शादी हुई, तब भी उसने सपनों से समझौता नहीं किया। लेकिन कुछ सपनों को समाज कुचल देता है। सुनहरी के साथ भी ऐसा ही हुआ।

कहा जाता है कि उसके पति का उसके ऊपर अत्याचार आम बात थी। एक दिन जब वो पति के ज़ुल्म से तंग आकर मायके लौट रही थी, रास्ते में कुछ गुंडों ने उसके साथ दुर्व्यवहार किया। पुलिस में शिकायत की, तो उल्टा उसी पर आरोप लगा दिया गया। यहीं से उसके भीतर आग लगी – समाज, कानून और व्यवस्था से लड़ने की।

बीहड़ की पहली महिला डकैत

सुनहरी बाई ने चंबल के बीहड़ों का रास्ता चुना, और धीरे-धीरे खुद का गिरोह बनाया। उसके गिरोह में पुरुष भी थे, लेकिन सब उसकी इज्ज़त करते थे। वह नशे से दूर रहती थी, नियमों से चलती थी और अपने गिरोह के लोगों को भी अनुशासन में रखती थी।

उसका पहला निशाना वो गुंडे थे जिन्होंने उसका जीवन तोड़ा था। उनके खात्मे के बाद सुनहरी को चंबल में एक ‘न्याय की देवी’ जैसा दर्जा मिलने लगा। उसके शिकार सिर्फ वही लोग होते थे जो ज़मीन हड़पते थे, दलितों पर अत्याचार करते थे या औरतों का शोषण करते थे।

क्यों कहलाई 'चंबल की रानी'

वह गाँव में जाती तो औरतें उसके पैर छूतीं, बच्चे उसके लिए आम तोड़ लाते। गाँव वालों के लिए वह डकैत नहीं, रक्षक थी। वह शादी-ब्याह में मदद करती, दवाइयाँ पहुंचवाती और कई बार तो बीमार लोगों को खुद अस्पताल तक लेकर जाती।

उसका पहनावा अलग होता — सिर पर चुन्नी, हाथों में बंदूक, और आँखों में आग। वह कई बार रात को अकेली ही गाँव में घूमती, लोगों से मिलती और उनकी शिकायतें सुनती। कहा जाता है, “अगर सुनहरी बाई कह देती कि वो मामला देखेगी, तो गाँव वालों को लगता था जैसे फैसला हो गया हो।”

पुलिस की आंख की किरकिरी

सरकार ने उस पर ₹5 लाख का इनाम रखा। कई बार पुलिस ने घेराबंदी की, लेकिन वह हर बार बच निकलती — जैसे बीहड़ उसके रास्ते खुद खोल देता हो।

एक बार की बात है — पुलिस ने उसे पकड़ने के लिए उसके गाँव में शादी के बहाने जाल बिछाया। लेकिन सुनहरी बाई को भनक लग गई। उसने शादी में आने से मना किया, और उसी रात उस पुलिस अधिकारी के घर उसके बच्चे के लिए मिठाई भिजवाई — एक पैगाम के साथ: "शादी में नहीं आ सकी, पर आशीर्वाद भेज रही हूँ।"

आत्मसमर्पण: सम्मान या मजबूरी?

वक्त बदला, सरकार बदली, और बीहड़ों पर दबाव बढ़ा। 1999 में मध्य प्रदेश सरकार ने आत्मसमर्पण की योजना शुरू की। सुनहरी बाई ने शर्त रखी:

  • उसे हथकड़ी न पहनाई जाए
  • महिला पुलिस ही साथ हो
  • और आत्मसमर्पण समारोह गाँव में हो

सरकार मान गई, और सुनहरी बाई ने खुले मंच पर बंदूक नीचे रख दी। लोगों की आँखों में आंसू थे, जैसे कोई देवी मंदिर से विदा हो रही हो।

जेल में जीवन और समाज की सोच

जेल में भी उसने पढ़ाई शुरू की। औरतों को सशक्त करने के लिए उसने जेल में ही एक समूह बनाया। उसका कहना था: “अगर मेरे जैसे लोगों को मौका मिले, तो वे समाज को तोड़ने वाले नहीं, जोड़ने वाले बन सकते हैं।”

अंतिम कहानी

सुनहरी बाई अब बीहड़ में नहीं, लेकिन उसकी कहानियाँ आज भी वहाँ की हवा में तैरती हैं। लोग कहते हैं — “अब ऐसी औरतें नहीं बनतीं जो बंदूक से भी इज्ज़त कमाए।” वह एक बाग़ी थी, पर उसकी बगावत में दर्द था, न्याय था, और औरत की अस्मिता की लड़ाई थी।


निष्कर्ष:

चंबल की इस रानी को दुनिया ने डकैत कहा, लेकिन बीहड़ ने उसे अपनी बेटी माना। सुनहरी बाई का नाम आज भी उन अनसुनी दास्तानों में दर्ज है, जो औरतों के दर्द और ताकत दोनों की मिसाल हैं।

“सुनहरी बाई थी, है और रहेगी — बीहड़ की वो लौ जो कभी बुझी नहीं।”

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