राजा निजाम खान: मुस्लिम राजा जो हिन्दू पर्व मनाता था

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राजा निजाम खान: मुस्लिम राजा जो हिन्दू पर्व मनाता था

इतिहास के पन्नों में कई ऐसे किरदार छिपे हैं जो न तो पाठ्यपुस्तकों में मिलते हैं और न ही टीवी की चमक-दमक भरी कहानियों में। ऐसे ही एक किरदार थे – राजा निजाम खान, जिनकी कहानी चंबल के बीहड़ों से निकलती है, लेकिन उनके विचारों में सांप्रदायिक सौहार्द, प्रेम और एकता की नदियाँ बहती हैं। वे एक मुस्लिम शासक थे, लेकिन उन्होंने न सिर्फ हिंदू धर्म के पर्वों को मनाया, बल्कि उन्हें अपनी संस्कृति का हिस्सा भी माना।

शुरुआत: बीहड़ों का वह छोटा राज्य

चंबल घाटी के पास एक छोटा सा इलाका था — जिसे आज शायद बहुत कम लोग जानते हैं। यह इलाका कई छोटे-छोटे जागीरों और रियासतों से घिरा हुआ था। इन्हीं में से एक रियासत पर शासन करते थे राजा निजाम खान। उनके पूर्वज अफगान मूल के थे, लेकिन उनकी सोच भारतीय मिट्टी में रच-बस गई थी।

धर्म नहीं, इंसानियत का शासन

निजाम खान ने कभी अपने शासन को धार्मिक पहचान से नहीं जोड़ा। उनके लिए प्रजा सबसे ऊपर थी — चाहे वह हिंदू हो या मुस्लिम। जब भी गांव में कोई हिंदू त्योहार आता, राजा खुद अपने दरबार में दीप जलवाते, रंगोली बनवाते और पंडितों को आमंत्रित कर यज्ञ करवाते। दशहरा के समय वह रामलीला मैदान में बतौर मुख्य अतिथि उपस्थित होते और रावण दहन से पहले भाषण देते — जिसमें वे श्रीराम की मर्यादा, प्रेम और धर्म की बात करते।

होली और दीवाली में विशेष आयोजन

दीवाली की रात राजा निजाम खान के महल में दीपों की कतारें सजाई जाती थीं। काली पूजा भी महल परिसर में होती थी। होली पर राजा रंग उड़वाते और 'अबीर गुलाल' की बौछार में स्वयं भाग लेते। एक बार उन्होंने रंगपंचमी पर "होली मिलन समारोह" रखा, जिसमें दूर-दराज के साधु-संतों से लेकर गाँव के किसान तक आमंत्रित किए गए थे।

मुस्लिम समुदाय में असहमति और राजा का जवाब

राजा की इस सोच पर कभी-कभी मुस्लिम समुदाय के कठमुल्ले लोग आपत्ति भी जताते। एक बार किसी मौलवी ने पूछा – "आप एक मुस्लिम होकर रामलीला में क्यों जाते हैं?" राजा ने मुस्कराकर कहा – "राम सिर्फ हिंदुओं के नहीं, बल्कि पूरे भारत की आत्मा हैं। अगर मैं भारत का राजा हूँ, तो राम भी मेरे हैं।"

राजा का अनोखा विवाह

राजा निजाम खान की पत्नी भी एक राजपूत परिवार से थीं। उनका विवाह एक ऐसे समय हुआ जब दोनों धर्मों के बीच काफी तनाव था। लेकिन उन्होंने इसे प्रेम और सम्मान से जीता। रानी ने महल में तुलसी चौरा बनवाया, जहां रोज दीप जलाया जाता था, और राजा ने कभी रोक नहीं लगाई।

राजा का 'सांझा भोज'

राजा निजाम खान हर साल शरद पूर्णिमा के दिन 'सांझा भोज' का आयोजन करते थे। इसमें हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों को आमंत्रित किया जाता। भोज में खीर, पूड़ी, सब्जी, सेवइयाँ और कबाब सभी एक ही पंक्ति में परोसे जाते। राजा स्वयं दोनों समुदायों के साथ बैठकर भोजन करते थे।

राजा का अंत और अमर छवि

जब राजा निजाम खान का निधन हुआ, तो गांव के मंदिरों में घंटियाँ बजीं और मस्जिदों में विशेष दुआएं मांगी गईं। उनका अंतिम संस्कार इस्लामिक पद्धति से हुआ, लेकिन हिंदू पंडितों ने भी उनके सम्मान में शांति पाठ किया। यह अपने आप में उस समय एक अद्भुत मिसाल थी।

आज के भारत के लिए सीख

आज जब देश में धर्म के नाम पर दीवारें खड़ी की जाती हैं, राजा निजाम खान की कहानी एक ऐसी मिसाल है जो बताती है कि राजा वही होता है जो सबको एक समान माने। उनके जीवन से यह शिक्षा मिलती है कि पर्व और परंपराएं किसी धर्म की जकड़न नहीं, बल्कि संस्कृति की आत्मा हैं — और संस्कृति, प्रेम और समावेश से ही फलती-फूलती है।

निष्कर्ष: बीहड़ का वो राजा जो सबका था

चंबल की घाटियों में जितनी कहानियाँ डकैतों की हैं, उतनी ही प्रेरणादायक कहानियाँ ऐसे शासकों की भी हैं जिन्होंने लोगों को जोड़ा, न कि तोड़ा। राजा निजाम खान उन्हीं में से एक थे। एक मुस्लिम राजा जो हिन्दू पर्व मनाता था — एक राजा जो नफरत के बीच प्रेम की मशाल लेकर चला।

“Kisson Wala Bharat” में हम ऐसे ही अनसुने, भूले-बिसरे किस्सों को आपके सामने लाते रहेंगे।

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